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Sunday 21 September, 2014

(घूस के रसशास्‍त्री)

घूस के रसशास्‍त्री पूरे दिन बुलाते -बतियाते रहे बाबा तुलसीदास से
कभी जुबान से कभी हाथ से कभी लतियाते रहे फुटबाल की तरह
राग-भैरवी 'प्रविसि नगर ...' से होते हुए बार-बार राग-दरबारी में खतम हो जाती
कभी उन्‍हें भय के बिना प्रीत होते हुए नहीं दिखता
कभी-कभी कुर्सियों में धँस के , कभी टेबुल पर पैर चढ़ा के
कभी गुटखा और तम्‍बाकू को ओंठों और मंसूड़े के बीच रखते हुए
बार-बार ढ़ोल-गँवार को बुलाते
वाह रे तुलसी बाबा सब मौका के लिए लिख गए
घूस के रसशास्‍त्री भरत को नहीं जानते थे
भरत भी इनको नहीं जानते थे
इसीलिए दोनों के साधारणीकरण अलग रास्‍ते जाते थे
दोनों के उद्दीपक अलग थे
संचारी आदि भी........