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Sunday 30 December, 2012

श्रीलाल शुक्‍ल


श्री लाल शुक्‍ल

जन्‍म तिथि :  31 दिसंबर 1925

निधन   :28 अक्‍तूबर   2011

प्रमुख कृति  : सूनी घाटी का सूरज ,राग दरबारी ,पहला पड़ाव ,विश्रामपुर का संत ,अंगद का पांव
साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार :राग दरबारी(1969)

व्‍यास सम्‍मान: विश्रामपुर का संत(1999)

2008 में पद्म भूषण
2009 में ज्ञानपीठ पुरस्‍कार






Saturday 29 December, 2012

सत्‍य


           सत्‍य
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
 लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

(1975)

Sunday 23 December, 2012

ओ सामने वाली पहाड़ी : सुरेश सेन निशांत

सुरेश सेन निशांत की कविताओं में पहाड़ का वह रूप नहीं है ,जो पंत या उसके बाद की कविताओं में है ।जहां पंत के पहाड़ 'ग्‍लोबल' हैं ,वहीं सुरेश के 'लोकल' ।इस स्‍थानीयता की अपनी आभा है ।यहां पहाड़ के साथ ही स्‍थानीय जीवन की तमाम तल्‍ख सच्‍चाईयां सामने हैं ।यह पर्वत-यात्रा आनंदित नहीं करती ,और इसके झकझोड़ने में ही कविता की शक्ति समाहित है



ओ सामने वाली पहाड़ी


एक(1)


मुझे नहीं पताइस बसंत में कैसी नजर आएगी तू
कैसी दिखेगी इस सावन में
जब बारिश से भींगी हुई होगी
तुम्‍हारी देह ।

हरे रंग का परिधान
तेरे जिस्‍म पर बहुत फबता है
बहुत भाता है मुझे
बुरांश के फूलों से सजा
तेरा रूप ।


मैं घंटों निहारता रहता हूं तुझे
जैसे कोई प्रेमी
अपनी प्रेमिका को निहारता है
जैसे कोई सत्रह बरस का युवक
किसी अति सुंदर लड़की को
अचरज से भरा निहारता ही जाता है
अपनी सुध-बुध खोता हुआ ।
जैसे कोई मछेरा हसरत भरी नजरों से
निहारता है नदी के निर्मल जल को।

उसी तरह हां उसी तरह
मैं निहारता रहता हूं तुम्‍हें ।

हर रोज नित नए ढ़ंग से
सँवरा हुआ लगता है मुझे तेरा रूप ।
तुम्‍हारी आंखों के जल में
रोज धोता हूं मैं अपनी देह ।
तुम्‍हारी देह की आंच में
सुखाता हूं अपना जिस्‍म ।
तुम्‍हारी आवाज की लहरों पर
तैराता हूं गांव भर के बच्‍चों के संग
अपनी भी कागज की कश्तियां।
मैं तुम्‍हारे जिस्‍म में
डूबो देता हूं अपना जिस्‍म
मिलता हूं वहां असंख्‍य जंतुओं से
असंख्‍य पंछियों से करता हूं दोस्‍ती ।


पता नहीं
कितने ही रहस्‍यों से भरी पड़ी है तू
जब भी तेरी देह में उतरता हूं
मैं ईश्‍वर को देखता हूं
तेरी देह में हरे रंग का परिधान पहने
एक कोमल पत्‍ते सा हिलते हूए


मैं देखता हूं वहां
अपने पुरखों को घास काटते हुए ।
सूखी लड़कियों का भरौटा उठाए
देखता हूं गांव भर की औरतों को उतरते ।
मैं हल की फाल उठाये
पिता को देखता हूं तेरे पास से
खुशी-खुशी लौटते ।
मैं देखता हूं
मुंह अंधेरे की गई मेरी बहिनें
मीठे काफलों की
भरी टोकरी लेकर लौट रही है तेरे पास से ।

पर इधर कोई
हरीश सिमेंट वाला टांग रहा है
तेरी देह पर अपना बोर्ड
तेरी देह से वस्‍त्र उतारने की
कर रहा है नित नए षड्यंत्र ।
हमारे ग्राम प्रधान और विधायक
लालच की नदी में डूबकर
उसकी महफिलों की बन गए हैं रौनक ।

ओ सामने वाली पहाड़ी
आजकल पूरे जनपद के कुम्‍हार
जब भी बनाने बैठते हैं घड़े
चाक पर रखी गीली मिट्टी में
सुनाई देती हैं उन्‍हें तुम्‍हारी सिसकियां
तुम्‍हारी कराहटों से भरी रहती है
उदास लुहारों की सुलगती गोरसियां


जब भी चरने छोड़ते हैं हम अपने मवेशी
वे दिन भर तुम्‍हें ही निहारते रहते हैं
मां से बिछुड़ रहे बच्‍चे सा होता है
उदासी और विलाप से भरा उनका रम्‍भाना


सो सामने वाली पहाड़ी
बच्‍चे आजकल
तुम्‍हारी वनस्‍पतियों को , पंछियों को
और तुम्‍हें अपने सपनों में बचाने की बातें
करते रहते हैं
वे तुम्‍हें सुमेरू पर्वत सा उठाकर
कही दूर छुपाकर बचा लेना चाहते हैं
उनकी भोली बातें सुन
दुख और क्रोध से भर जाती हैं औरतें
दुख और क्रोध से भर जाते हैं हम


हमारे इस विलाप में शामिल है
गीदड़ों का भी विलाप



दो (2)


ओ सामने वाली पहाड़ी
तीन कोस दूर पे
एक और फैक्‍टरी है सिमेंट की
ए0सी0सी0 नाम है उसका ।

यहां हर रोज बारूद के धमाकों से
तोड़ी जाती है एक पहाड़ी
वहां हर रोज
मरते हैं कुछ चिडि़यों के बच्‍चे
जो अभी उड़ना ही सीख रहे होते हैं

हर रोज बारूद के धमाकों से
सहमा जल निथरता जाता है
धरती की गहराई की ओर
हर रोज कम होता जाता है
हमारी बावडि़यों और कुओं का जल
हर रोज बढ़ती जाती है
हमारे गांव-घर की औरतों की
पानी के स्रोतों से दूरी ।


यहां हर रोज़ धमाकों से
कांपती है घरती
कांपता है हमारा मन
कांपती रहती है आसपास की
पहाडि़यों की रूह
कांपता रहता है भय से भरा
देर तक इस सतलुल का भी जल ।

ओ सामने वाली पहाड़ी
उसमें थोड़ा सा दूर जाएं
तो एक और सीमेंट फैक्‍टरी है
दूजी पहाड़ी पर बनी
अंबुजा नाम है उसका
वहां भी वैसी ही है
बारूद के धमाकों की गूंज
वैसा ही है धूऍं के बीच दौड़ते
ट्रकों का बेतहाशा शोर ।
उसकी बगल वाली पहाड़ी पर
जे0पी0 सीमेंट फैक्‍टरी है ।


यहां हर जगह सुनी जा सकती है
धरती की सिसकियां
और इन पहाडि़यों के सौदागरों की
ऊँची ठहाकेदार हँसी भी ।



तीन (3)
  

कहां जाऍंगे हम
हमारे मवेशी कहां जाऍंगे
कहां जाएँगे इन पहाडि़यों पर
बसने वाले परिंदे

हम बारिशों को
कौन से गीत गाकर बुलाऍंगे
हम धरती के इतने घावों को
कैसे भरेंगे
कहां रखेंगे
कहां बोएंगे
भय से सूखते
इन पेड़ों के बीज


चार(4)


ए0सी0सी0 सिमेंट फैक्‍ट्री के
बगल वाले गांव में है
मेरी बहिन का घर
धूल की एक मोटी दीवार है
हमारे और बहिन के घर के बीच
नहीं सुनाई देती है
बहिन की दुख भरी आवाज
उसकी सिसकियां ।
धूल की एक मोटी पर्त
बिछी रहती है
बहिन की घर की छत पर भी
जिसे धोती है कभी कभार होने वाली वारिश ।
धूल ही धूल है
घासनियों की घास पर भी
जिसे नहीं खाते हैं मवेशी ।
बहिन के पांच साल के बेटे को
हो गई है खांसी
जो जाती ही नहीं
यही बीमारी है उसके पिता को भी
वंशानुगत नहीं है यह रोग
अभी-अभी फैला है ।


सुरेश सेन निशांत

( गांव-सलाह ,डाक-सुन्‍दरनगर-1 ,जिला-मण्‍डी ,174401 ,हिमाचल प्रदेश)

फोन 09816224478


सभार 'बया' ,'अंतिका प्रकाशन' , गौरीनाथ(संपादक 'बया')

Sunday 16 December, 2012

अब तो पिताओं के भी मरने के दिन आ गए हैं ।

उम्र चालीस
चर्बियों के हिसाब से किसी नौकरी में
 मोटरसाईकिल की डिक्‍की में बी0पी0 शुगर की रिपोर्ट
रंगरूप और सफाचट ललाट से तेल-क्रीम की विफलता स्‍पष्‍ट थी
कई और चूर्ण ,अर्क भी फेल हुए थे
बच्‍चों की मार्कशीट :इस बार भी ससुरा थर्ड ही आया
जेब में मॉल का पता :कब तक झूठमूठ का व्‍यस्‍त रहोगे
हैंडिल में लटका सब्जियों का झोला:फिर अदरख भूले हो ससुर
फोन पर बार-बार नजर: फिर कौन सी मीटिंग है
गांव में मां भी बीमार है
अब तो पिताओं के भी मरने के दिन आ गए हैं ।

Monday 10 December, 2012

केदारनाथ सिंह का काव्‍य-संसार

गांव और शहर
 यह कहना काफी नहीं कि केदारनाथ सिंह की काव्‍य-संवेदना का दायरा गांव से शहर तक परिव्‍याप्‍त है या यह कि वे एक साथ गांव के भी कवि हैं तथा शहर के भी । दरअसल केदारनाथ पहले गांव से शहर आते हैं फिर शहर से गांव ,और इस यात्रा के क्रम में गांव के चिह्न शहर में और शहर के चिह्न गांव में ले जाते हैं ।इस आवाजाही के चिह्नों को पहचानना कठिन नहीं हैं ,परंतु प्रारंभिक यात्राओं के सनेस बहुत कुछ नए दुल्‍हन को मिले भेंट की तरह है ,जो उसके बक्‍से में रख दिए गए हैं । परवर्ती यात्राओं के सनेस में यात्री की अभिरूचि स्‍पष्‍ट दिखती है ,इसीलिए 1955 में लिखी गई ‘अनागत’ कविता की बौद्धिकता धीरे-धीरे तिरोहित होती है ,और यह परिवर्तन जितना केदारनाथ सिंह के लिए अच्‍छा रहा ,उतना ही हिंदी साहित्‍य के लिए भी ।


बहुत कुछ नागार्जुन की ही तरह केदारनाथ के कविता की भूमि भी गांव की है ।दोआब के गांव-जवार,नदी-ताल,पगडंडी-मेड़ से बतियाते हुए केदारनाथ न अज्ञेय की तरह बौद्धिक होते हैं न प्रगतिवादियों की तरह भावुक ।केदारनाथ सिंह बीच का या बाद का बना रास्‍ता तय करते हैं ।यह विवेक कवि शहर से लेता है ,परंतु अपने अनुभव की शर्त पर नहीं ,बिल्‍कुल चौकस होकर ।



गंगा तट का यह कवि

छायावाद के बाद संभवत: पहली बार नदियों की इतनी छवियां एकसाथ दिखती है ।1979 में बिहार-उत्‍तरप्रदेश की सीमा पर मांझी गांव में घाघरा नदी पर स्थित पुल पर एक कविता लिखी गई है ।कवि ,उसकी दादी ,चौकीदार ,बंशी मल्‍लाह,लाल मोहर ,जगदीश ,रतन हज्‍जाम और बस्‍ती के लोग ही नहीं झपसी की भेड़ें भी पुल के जनम ,उसके विस्‍तार ,ईंट और बालू पर चर्चा करते हैं । फिर इसके बाद- मछलियां अपनी भाषा में

क्‍या कहती हैं पुल को ?

सूंस और घडि़याल क्‍या सोचते हैं
 कछुओं को कैसा लगता है पुल?

जब वे दोपहर बाद की रेती पर
अपनी पीठ फैलाकर
उसकी मेहराबें सेंकते हैं?
 मैं जानता हूं मेरी बस्‍ती के लोगों के लिए
 यह कितना बड़ा आश्‍वासन है
 कि वहां पूरब के आसमान में
 हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से
 चुपचाप टॅंगा है मांझी का पुल

(मांझी का पुल )





उसी प्रकार कवि गंगा को एक लंबे सफर के बाद तब देखता है जब उसे साहस और ताजगी की बेहद जरूरत होती है ।कवि के लिए नदी कोई बाहरी चीज नहीं बिल्‍कुल घरेलू सामान जैसा है : सचाई यह है
 कि तुम कहीं भी रहो
तुम्‍हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
 प्‍यार करती है एक नदी
 नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
 पर होगी जरूर कहीं न कहीं
 किसी चटाई

या फूलदान के नीचे चुपचाप बहती हुई (नदी)

धर्म या अध्‍यात्‍म के किसी भी तत्‍व पर बल दिए बिना केदारनाथ सिंह की कविता में नदी अपने पूरे सामाजिक –जीवमंडल के साथ मौजूद है
 कीचड़ सिवार और जलकुम्भियों से भरी
 वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
 एक नाम की तलाश में
 मेरे गांव की नदी (बिना नाम की नदी)

प्रतिरोध का नया रूप

केदारनाथ सिंह की नदियां ,पहाड़ ,पौधे स्‍वाभाविक तेज से दीप्‍त हैं और कवि ‘पहाड़’ कविता में पहाड़ को सुस्‍ताते ,गहरे ताल में उतरते देखता है :
अन्‍त में
 खड़े-खड़े
विराट आकाश के जड़ वक्षस्‍थल पर
 वे रख देते हैं अपना सिर
 और देर तक सोते हैं
क्‍या आप विश्‍वास करेंगे
 नींद में पहाड़
रात-भर रोते हैं ।

केदारनाथ सिंह की कविता में नदी ,पहाड़ ,नीम ही नहीं गधा और कौआ भी अपनी बात कह लेते हैं ।पर किसी प्रकार का बड़बोलापन यहां नहीं दिखती ।
 जिरह के बीचोबीच एक गधा खड़ा था
खड़ा था और भींग रहा था
पानी उसकी पीठ और गर्दन की
तलाशी ले रहा था
 उसके पास छाता नहीं था
 सिर्फ जबड़े थे जो पूरी ताकत के साथ
 वारिस और सारी दुनिया के खिलाफ
बन्‍द कर लिये गये थे
 यह सामना करने का
 एक ठोस और कारगर तरीका था
 जो मुझे अच्‍छा लगा
 (वारिस)

 इसी प्रकार ‘भरी दोपहरी में बोलता रहा कौआ’ अपनी आवाज से जितना चिढ़ाता है ,चुप रहकर भी उतना ही परेशान करता है ।



व्‍यंग्‍य का नया रूप

 रूलाने वाला व्‍यंग्‍य कम कवियों के पास है ।केदारनाथ सिंह के व्‍यंग्‍य व्‍यवस्‍था या नियति पर चित्‍कार करते हैं

पानी में घिरे हुए लोग
 प्रार्थना नहीं करते

वे पूरे विश्‍वास के साथ देखते हैं पानी को
 .............
मगर पानी में घिरे हुए लोग
 शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
 कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग

(पानी में घिरे हुए लोग)


लोककथाओं की शैली

केदारनाथ सिंह लोककथाओं का उपयोग करते हुए अपनी कविता को बढ़ाते हैं ।प्राय: पौधों ,जानवरों ,पहाड़ों या नदियों से बात करते हुए ,परंतु वे 'असाध्‍य वीणा' जैसा लंबा रूपक नहीं रचते हैं ।लोककथाओं का भी केवल बतियाने वाला तत्‍व ही उनके दिमाग में आता है ,वे किसी पुराने लोककथा का प्रयोग करने से बचते हैं ,परंतु उनका प्रयोग इतना लोकधर्मी है कि ये कविता किसी पुराने लोककथा की तरह सामाजिक-मनोविज्ञान के अनगिन स्‍नायुओं को स्‍पर्श करते हैं ।


अपने समय की रचनात्‍मकता पर नजर

कोई लेखक कई तरह से अपने समय की रचनात्‍मकता में हस्‍तक्षेप करता है ,केवल लिखकर ,केवल काटकर ,लिखकर और काटकर .............. और केदारनाथ सिंह लिखते हैं भी और काटते हैं ।आलोचनात्‍मक लेख लिखकर ही नहीं कविता में भी वे कई बार काट-खूट करते रहते हैं
दो लोग तुम्‍हारी भाषा में ले आते हैं
कितने शहरों की धूल और उच्‍चारण
क्‍या तुम जानते हो

(दो लोग)

एक साइकिल धूप में खड़ी थी
जो साइकिल से ज्‍यादा एक चुनौती थी
मेरे फेफड़ों के लिए
और मेरी भाषा के पूरे वाक्‍य-विन्‍यास के लिए

(दुश्‍मन)


और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूं
मेरी जिह्वा पर नहीं
बल्कि दांतों के बीच की जगहों में
सटी है

(फर्क नहीं पड़ता)

हमारा हर शब्‍द
किसी नये ग्रहलोक में
एक जन्‍मान्‍तर है


यह जन्‍मांतर उनकी हर कविता में दिखता है ,और अपनी बात को अनूठी तरह से रखने वाला यह कवि हमारे समय का बहुत बड़ा कवि है ।विषय ,भाषा और शैली का नवोन्‍मेष उसे बेजोड़ बनाता है ,इस दृष्टि से उनमें और उनकी कविता में नवीनता का अत्‍यंत ही सजग एहसास है ,परंतु नई कविता की घोषणाओं से बहुत कुछ अलग ।

जीवन का अबाध स्‍वीकार

केदारनाथ सिंह की कविताओं में जीवन की स्‍वीकृति है ,परंतु तमाम तरलताओं के साथ यह आस्तिक कविता नहीं है ।

मैं जानता हूं बाहर होना एक ऐसा रास्‍ता है
जो अच्‍छा होने की ओर खुलता है
और मैं देख रहा हूं इस खिड़की के बाहर
एक समूचा शहर है
(बीमारी के बाद)

और केदारनाथ सिंह की इस बेहतर दुनिया में ईश्‍वर नहीं हैं ।यह बैंकों ,ट्रेनों,वायुयानों की दुनिया है ,जहां ईश्‍वर के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है


यह कितना अद्भुत है
कि दस बजे हैं
और दुनिया का काम चल ही रहा है
बिना ईश्‍वर के भी
बसें उसी तरह भरी हैं
उसी तरह हड़बड़ी में हैं लोग
डाकिया उसी तरह चला जा रहा है
थैला लटकाये हुए
(बिना ईश्‍वर के भी)

और केदारनाथ सिंह की कविता में कोई ईश्‍वर है भी तो माचिस और लकड़ी  के साथ ही

मेरे ईश्‍वर
क्‍या मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते
कि इस ठंड से अकड़े हुए शहर को बदल दो
एक जलती हुई बोरसी में
(शीतलहरी में एक बूढ़े आदमी की प्रार्थना)



Sunday 9 December, 2012

मैं एक कवि था

गुरूजी सही कहते थे कि बचुवा पहले खूब पढ़ ले तब लिखना


और हम इतना जल्दियाए थे कि कहते थे बस्‍स गुरू जी बस्‍स

और एक दिन एक कवि का शीर्षक मैच कर गया तो

 एक ससुरा इतना जोर से डांटा कि जैसे उनकी बछिया चुरा ली हो हमने

और इसी तरह एक दिन किसी कविता की गाली भी

तो लगा ऐसे जैसे सारी गालियां का कॉपीराइट उन्‍हीं के पास हो

हरेक डांट-फटकार ,गाली-गलौज में याद तो आते हैं गुरू जी

पर जितना कठिन है गलती मानना उससे भी कठिन महाभूतों का साक्षात्‍कार

सो गुरू जी क्षमा करिएगा कविता का विकास ऐसे ही लिखा था

पटना में दिल्‍ली में इंदौर में और आगे भी और आप जहां हैं वहां भी

और कविताओं की संख्‍या उतनी तेजी से बढ़ रही है जितनी तेजी से छोटका गिनती सीख रहा है

और पत्‍नी भी मुंह चमकाकर हाथ नचाकर विद्वान मानने लगी है

सो गुरू जी सही सही बताइएगा क्‍या गुरूआइन भी इसी तरह हाथ नचाकर आपको सराहती थी
जब दुनिया के सारे संज्ञा-सर्वनाम ,क्रिया और विशेषण घिस चुके थे
बिक चुका था मैगजीन और चौराहों का हरेक कोना
हम भी पुराने आइडिया को पूरी बेशरमी से मौलिक कह संपादक को भेजते
और संपादक भी उसी तेजी से आभार प्रकट कर चुप्‍पी मार देता
दरअसल अब कविता को अस्‍वीकृत नहीं किया जाता था
और कविता लौटाना भी पुराना फैशन था
इसी सुविधा ने मुझे कवि बनाए रखा सालों साल
और मैं भी एक कवि था
मेरे भी कुछ छंद थे ,विषय था
कुछ मेरे भी पाठक थे ,श्रोता भी थे
मंच ,गुट और कंठ को सुरीला बनाता
गोलमिर्च ,अदरख खाता
मैं एक कवि था